Full Screen
المشاركات

राष्ट्र का स्वरुप

राष्ट्र का स्वरुप
Please wait 0 seconds...
Scroll Down and click on Go to Link for destination
Congrats! Link is Generated
 
निम्नलिखित गद्यांश पर आधारित दिए, गए प्रश्नों के उत्तर हल सहित |
(1)भूमि का निर्माण देवों ने किया है, वह अनंत काल से है। उसके भौतिक रूप, सौन्दर्य और समृद्धि के प्रति सचेत होना हमारा आवश्यक कर्तव्य है। भूमि के पार्थिव स्वरूप के प्रति हम जितने अधिक जागरित होंगे उतनी ही हमारी राष्ट्रीयता बलवती हो सकेगी। यह पृथ्वी सच्चे अर्थों में समस्त राष्ट्रीय विचारधाराओं की जननी है, जो राष्ट्रीयता पृथ्वी के साथ नहीं जुड़ी वह निर्मूल होती है। राष्ट्रीयता की जड़ें पृथ्वी में जितनी गहरी होंगी उतना ही राष्ट्रीय भावों का अंकुर पल्लवित होगा। इसलिए पृथ्वी के भौतिक स्वरूप की आद्योपांत जानकारी प्राप्त करना, उसकी सुन्दरता, उपयोगिता, और महिमा को पहचानना आवश्यक धर्म है।


(क) राष्ट्र भूमि के प्रति हमारा आवश्यक कर्तव्य क्या है?
उत्तर – (क) राष्ट्र भूमि के भौतिक रूप, सौन्दर्य तथा समृद्धि के प्रति सचेत होना ही हमारा आवश्यक कर्तव्य है।


(ख) किस प्रकार की राष्ट्रीयता को लेखक ने निर्मूल कहा है?
उत्तर – (ख) जो राष्ट्रीयता पृथ्वी के साथ नहीं जुड़ी है उसे लेखक ने निर्मूल कहा है।


(ग) यह पृथिवी सच्चे अर्थों में क्या है?
उत्तर – (ग) यह पृथ्वी सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय विचारधाराओं की जननी है।


(घ) भूमि का निर्माण किसने किया है और कब से है?
उत्तर – (घ) भूमि का निर्माण देवों ने अनन्तकाल से किया है।


(ङ) भूमि के पार्थिव स्वरूप के प्रति जागरूक रहने का परिणाम क्या होगा?
उत्तर – (ङ) भूमि के पार्थिव स्वरूप के प्रति जागरूक रहने से हमारी राष्ट्रीयता बलवती होगी।


(च) रेखांकित वाक्यांश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर – (च) रेखांकित अंश की व्याख्या -पृथ्वी के पार्थिव स्वरूप एवं सौन्दर्य के प्रति हम जितने अधिक जागरूक होंगे उतनी ही हमारी राष्ट्रीयता मजबूत होगी। यह पृथ्वी ही सच्चे अर्थों में समस्त राष्ट्रीय विचारों को पैदा करने वाली है, जो राष्ट्रीयता इस भूमी से नहीं जुड़ी वह जड़ रहित है। राष्ट्रीयता जहाँ अति गहन होगी, उसकी जड़ें भूतल में जितनी गहरी होंगी, वहाँ उतना ही अधिक राष्ट्रीय भाव पनपेंगे। राष्ट्रीय भावों का अंकुर उतना ही अधिक पल्लवित तथा पुष्पित होगा। अत: प्रारम्भ से अन्त तक पृथ्वी के भौतिक स्वरूप की जानकारी रखना तथा उसके सौन्दर्य, उपयोगिता और महिमा को पहचानना, प्रत्येक मानव जाति का न केवल परम कर्तव्य है, अपितु उसका धर्म भी है।


(छ) ‘पार्थिव’ और ‘आद्योपांत’ शब्दों का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – (छ) ‘पार्थिव’ का अर्थ है लौकिक अर्थात लोक व्यवहार से सम्बन्धित तथा ‘आद्योपांत’ का अर्थ है सम्पूर्ण अर्थात प्रारम्भ से लेकर अन्त तक।


(ज) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ का शीर्षक और लेखक का नाम लिखिए।
उत्तर – (ज) प्रस्तुत गद्यांश ‘राष्ट्र का स्वरूप’ पाठ से लिया गया है जिसके लेखक डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल हैं।


(2)धरती माता की कोख में जो अमूल्य निधियाँ भरी हैं जिनके कारण वह वसुन्धरा कहलाती है उससे कौन परिचित न होना चाहेगा? लाखों-करोड़ों वर्षों से अनेक प्रकार की धातुओं को पृथिवी के गर्भ में पोषण मिला है। दिन-रात बहने बाली नदियों ने पहाड़ों को पीस-पीसकर अगणित प्रकार की मिट्टियों से पृथिवी की देह को सजाया है। हमारे भावी आर्थिक अभ्युदय के लिए इन सबकी जाँच-पड़ताल अत्यन्त आवश्यक है। पृथ्वी की गोद में जन्म लेने वाले जड़ पत्थर शिल्पियों से सँवारे जाने पर अत्यन्त सौन्दर्य के प्रतीक बन जाते हैं। नाना भाँति के अनगढ़ नग विन्ध्य की नदियों के प्रवाह में सूर्य की धूप से चिलकते रहते हैं, उनको जब चतुर कारीगर पहलवार कटाव पर लाते हैं तब उनके प्रत्येक घाट से नयी शोभा और सुन्दरता फूट पड़ती है, वे अनमोल हो जाते हैं। देश के नर नारियों के रूप में मंडन और सौन्दर्य प्रसाधन में इन छोटे पत्थरों का भी सदा से कितना भाग रहा है
(क) गद्यांश के पाठ का शीर्षक और लेखक का नाम लिखिए। .


उत्तर – (क) प्रस्तुत गद्यांश सुविदित साहित्यकार डॉ० अग्रवाल द्वारा लिखित ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक निबन्ध से उद्धृत निबन्ध हमारी हिन्दी की पाठ्यपुस्तक के गद्य भाग में संकलित है।
(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।


उत्तर – (ख) हमारे देश के भावी आर्थिक विकास की दृष्टि से इन सब तथ्यों का परीक्षण परमावश्यक है। पृथ्वी के भीतर विभिन्न प्रकार के पत्थर उत्पन्न होते हैं। उन चेतनाहीन पत्थरों को पृथ्वी के गर्भ से निकालकर कुशल मूर्तिकार और दूसरे मूर्तिकार उनसे अनेक प्रकार की मूर्तियाँ और अन्य वस्तुएँ बनाकर उनमें प्राण फूँक देते हैं। इस प्रकार शिल्पकार के हाथों का स्पर्श पाकर ये पत्थर सौन्दर्य के प्रतीक बन जाते हैं। विन्ध्य पर्वत से निकलनेवाली नदियों की धारा में अनगिनत अनगढ़ चिकने पत्थर सूर्य की धूप में अपनी चमक बिखरते रहते हैं; किन्तु जब इन पत्थरों को कुशल कारीगर काटकर उनमें विभिन्न प्रकार के उभार देकर किसी कृति की रचना करते हैं तो उसका प्रत्येक कटाव नए सौन्दर्य की परिभाषा गढ़ता है। इस सौन्दर्य के कारण वह अनगढ़ पत्थर बहुमूल्य बन जाता है। नदियों की धारा में बिखरे ये पत्थर हमारे देशवासियों के गहनों का हिस्सा बनकर किस प्रकार से उनके सौन्दर्य में वृद्धि करते हैं, इसका ज्ञान होना भी हमारे लिए जरूरी है।
(ग) उपर्युक्त गद्यांश में राष्ट्र-निर्माण के किस प्रथम तत्त्व का महत्त्व दर्शाया गया है?


उत्तर – (ग) उपर्युक्त गद्यांश में राष्ट्र-निर्माण के प्रथम तत्त्व ‘भूमि’ अथवा पृथ्वी का महत्त्व दर्शाया गया है।
(घ) धरती (पृथ्वी) को ‘वसुन्धरा’ क्यों कहते हैं?


उत्तर – (घ) धरती को ‘वसुन्धरा’ इसलिए कहा गया है; क्योंकि पृथ्वी अपने में अनेक प्रकार के मूल्यवान् रत्नों (वस्तुओं) को धारण किए हुए है।
(ङ) पृथ्वी की देह को किसने और किससे सजाया है?


उत्तर – (ङ) पृथ्वी की देह को दिन-रात बहनेवाली नदियों ने पहाड़ों को पीस-पीसकर अगणित प्रकार की मिट्टियों से सजाया है।
(छ) अमूल्य निधियाँ कहाँ भरी हैं?


उत्तर – (छ) अमूल्य निधियाँ धरती माता की कोख में भरी हैं।
(ज) पहाड़ों को किसने पीसा है?


उत्तर – (ज) पहाड़ों को दिन-रात बहनेवाली नदियों ने पीसा है |
(3)मातृभूमि पर निवास करनेवाले मनुष्य राष्ट्र का दूसरा अंग हैं। पृथिवी हो और मनुष्य न हों तो राष्ट्र की कल्पना असम्भव है। पृथिवी और जन दोनों के सम्मिलन से ही राष्ट्र का स्वरूप सम्पादित होता है। जन के कारण ही पृथिवी मातृभूमि की संज्ञा प्राप्त करती है। पृथिवी माता है और जन सच्चे अर्थों में पृथिवी का पुत्र है।,


(क) राष्ट्र की कल्पना कब असम्भव है?
उत्तर – (क) मनुष्य के बिना राष्ट्र की कल्पना असम्भव है।


(ख) पृथिवी और जन दोनों मिलकर क्या बनाते हैं?
उत्तर – (ख) पृथिवी और जन दोनों मिलकर राष्ट्र का स्वरूप बनाते हैं।


(ग) पृथिवी कब मातृभूमि की संज्ञा प्राप्त करती है?
उत्तर – (ग) जन के कारण ही पृथ्वी मातृभूमि की संज्ञा प्राप्त करती है।


(घ) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर -(घ) राष्ट्र के स्वरूप का निर्माण; पृथ्वी और जन दोनों की विद्यमानता की स्थिति में ही सम्भव है। पृथ्वी पर ‘जन’ का निवास होता है, तभी पृथ्वी मातृभूमि कहलाती है। जब तक किसी भू-भाग में निवास करनेवाले मनुष्य वहाँ की भूमि को अपनी सच्ची माता और स्वयं को उस भूमि का पुत्र नहीं मानते, तब तक राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न नहीं हो सकती।


(ङ) पाठ का शीर्षक और लेखक का नाम बताइए।
उत्तर – (ङ) उपर्युक्त गद्यांश राष्ट्र का स्वरूप से लिया गया है जिसके लेखक डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल हैं |


(4) जन का प्रवाह अनन्त होता है। सहस्त्रों वर्षों से भूमि के साथ राष्ट्रीय जन ने तादात्म्य प्राप्त किया है। जब तक सूर्य की रश्मियाँ नित्य प्रातःकाल भुवन को अमृत से भर देती हैं, तब तक राष्ट्रीय जन का जीवन भी अमर है। इतिहास के अनेक उतार-चढ़ाव पार करने के बाद भी राष्ट्र-निवासी जन नई उठती लहरों से आगे बढ़ने के लिए अजर-अमर हैं। जन का संततवाही जीवन नदी के प्रवाह की तरह है, जिसमें कर्म और श्रम के द्वारा उत्थान के अनेक घातों का निर्माण करना होता है।
(क) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।


उत्तर-(क) प्रस्तुत गद्यांश सुविदित साहित्यकार डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा लिखित ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक निबन्ध से उद्धृत है। यह निबन्ध हमारी हिन्दी की पाठ्यपुस्तक के गद्य भाग में संकलित है।
(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।


उत्तर-(ख)प्रत्येक राष्ट्र का इतिहास निरन्तर बदलता रहता है तथा उसमें अनेक उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, किन्तु राष्ट्र के निवासियों की श्रृंखला निरन्तर चलती रहती है। मनुष्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने राष्ट्र के साथ जुड़ा रहता है। इसी कारण हजारों वर्षों से मनुष्य ने अपनी भूमि के साथ तादात्म्य स्थापित किया हुआ है तथा विभिन्न दृष्टियों से एकरूपता बनाई हुई है। जब तक राष्ट्र रहेगा और राष्ट्र की प्रगति होती रहेगी, तभी तक राष्ट्रीय ‘जन’ का जीवन भी रहेगा।
(ग) इस अवतरण में राष्ट्र के किस तत्त्व पर प्रकाश डाला गया है?


उत्तर-(ग) इस अवतरण में राष्ट्र के दूसरे अनिवार्य तत्त्व ‘जन’ पर प्रकाश डाला गया है।
(घ) “जन का प्रवाह अनन्त होता है।” इस पंक्ति में निहित भाव स्पष्ट कीजिए।


उत्तर-(घ) “जन का प्रवाह अनन्त होता है।” इस पंक्ति में निहित भाव यह है कि प्रत्येक राष्ट्र का इतिहास निरन्तर बदलता रहता है तथा उसमें अनेक उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, किन्तु राष्ट्र के निवासियों की श्रृंखला निरन्तर चलती रहती है। मनुष्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने राष्ट्र के साथ जुड़ा रहता है।
(ङ) राष्ट्रीय जन का जीवन कब तक रहेगा?


उत्तर-(ङ) जब तक राष्ट्र रहेगा और राष्ट्र की प्रगति होती रहेगी, तभी तक राष्ट्रीय ‘जन’ का जीवन भी रहेगा।
(च) राष्ट्र के निवासियों का निरन्तर चलता रहनेवाला जीवन किसके समान है?


उत्तर-(च) राष्ट्र के निवासियों का निरन्तर चलता रहनेवाला जीवन नदी के प्रवाह के समान है |
(5) राष्ट्र का तीसरा अंग जन की संस्कृति है। मनुष्यों ने युग-युगों में जिस सभ्यता का निर्माण किया है,वही उसके जीवन की श्वास-प्रश्वास है। बिना संस्कृति के जन की कल्पना कबन्धमात्र है; संस्कृति ही जन का मस्तिष्क है। संस्कृति के विकास और अभ्युदय के द्वारा ही राष्ट्र की वृद्धि सम्भव है। राष्ट्र के समग्र रूप में भूमि और जन के साथ-साथ जन की संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यदि भूमि और जन अपनी संस्कृति से विरहित कर दिए जायँ तो राष्ट्र का लोप समझना चाहिए। जीवन के विटप का पुष्प संस्कृति है । संस्कृति के सौन्दर्य और सौरभ में ही राष्ट्रीय जन के जीवन का सौन्दर्य और यश अन्तर्निहित है। ज्ञान और कर्म दोनों के पारस्परिक प्रकाश की संज्ञा संस्कृति है। भूमि पर बसनेवाले जन ने ज्ञान के क्षेत्र में जो सोचा है और कर्म के क्षेत्र में जो रचा है, दोनों के रूप में हमें राष्ट्रीय संस्कृति के दर्शन मिलते हैं।जीवन के विकास की युक्ति ही संस्कृति के रूप में प्रकट होती है। प्रत्येक जाति अपनी-अपनी विशेषताओं के साथ इस युक्ति को निश्चित करती है और उससे प्रेरित संस्कृति का विकास करती है। इस दृष्टि से प्रत्येक जन की अपनी-अपनी भावना के अनुसार पृथक्-पृथक् संस्कृतियाँ राष्ट्र में विकसित होती हैं, परन्तु उन सबका मूल आधार पारस्परिक सहिष्णुता और समन्वय पर निर्भर है।


(क) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर-(क) प्रस्तुत गद्यांश सुविदित साहित्यकार डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा लिखित ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक निबन्ध से उद्धृत है। यह निबन्ध हमारी हिन्दी की पाठ्यपुस्तक के गद्य भाग में संकलित है।


(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-(ख) संस्कृति और मनुष्य एक-दूसरे के पूरक होने के साथ-साथ एक-दूसरे के लिए अनिवार्य भी हैं। एक के न रहने पर दूसरे का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। इसीलिए तो कहा जाता है कि जीवनरूपी वृक्ष का फूल ही संस्कृति है; अर्थात् किसी समाज के ज्ञान और उस ज्ञान के आलोक में किए गए कर्त्तव्यों के सम्मिश्रण से जो जीवन-शैली उभरती है या सभ्यता विकसित होती है, वही संस्कृति है। समाज ने अपने ज्ञान के आधार पर जो नीति या जीवन का उद्देश्य निर्धारित किया है, उस उद्देश्य की दिशा में उसके द्वारा सम्पन्न किया गया उसका कर्त्तव्य; उसके रहन-सहन, शिक्षा, सामाजिक व्यवस्था आदि को प्रभावित करता है और इसे ही संस्कृति कहा जाता है।


(ग) भूमि और जन के पश्चात् राष्ट्र के किस तीसरे अंग पर इस गद्यांश में लेखक ने विचार किया है?
उत्तर-(ग) इस गद्यांश में लेखक ने भूमि और जन के पश्चात् राष्ट्र के तीसरे अंग ‘संस्कृति’ पर विचार किया


(घ) ‘संस्कृति’ धरती के जन का किस रूप में अभिन्न एवं अनिवार्य अंग है?
उत्तर-(घ) ‘संस्कृति’ धरती पर निवास करनेवाले जन का उसी प्रकार से अभिन्न एवं अनिवार्य अंग है, जिस प्रकार से जीवन के लिए श्वास-प्रश्वास अनिवार्य है।


(ङ) ‘बिना संस्कृति के जन की कल्पना कबन्धमात्र है।’ इस पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-(ङ) “बिना संस्कृति के जन की कल्पना कबन्धमात्र है।” इस पंक्ति में निहित भाव यह है कि जिस प्रकार से मस्तिष्क से रहित धड़ को व्यक्ति नहीं कहा जा सकता; अर्थात् मस्तिष्क के बिना मनुष्य की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार संस्कृति के बिना मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।


(च)’जीवन के विटप का पुष्प संस्कृति है।’ इस पंक्ति के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहते हैं?
उत्तर-(च)“जीवन के विटप का पुष्प संस्कृति है।” इस पंक्ति के माध्यम से लेखक यह कहना चाहते हैं कि जीवनरूपी वृक्ष का फूल ही संस्कृति है; अर्थात् किसी समाज के ज्ञान और उस ज्ञान के आलोक में किए गए कर्त्तव्यों के सम्मिश्रण से जो जीवन-शैली उभरती है या सभ्यता विकसित होती है, वही संस्कृति है|


(6) जंगल में जिस प्रकार अनेक लता, वृक्ष और वनस्पति अपने अदम्य भाव से उठते हुए पारस्परिक सम्मिलन से अविरोधी स्थिति प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार राष्ट्रीय जन अपनी संस्कृतियों के द्वारा एक-दूसरे के साथ मिलकर राष्ट्र में रहते हैं। जिस प्रकार जल के अनेक प्रवाह नदियों के रूप में मिलकर समुद्र में एकरूपता प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार राष्ट्रीय जीवन की अनेक विधियाँ राष्ट्रीय संस्कृति में समन्वय प्राप्त करती हैं। समन्वययुक्त जीवन ही राष्ट्र का सुखदायी रूप है।
(क) गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।


उत्तर-(क) प्रस्तुत गद्यांश सुविदित साहित्यकार डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा लिखित ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक निबन्ध से उद्धृत है। यह निबन्ध हमारी हिन्दी की पाठ्यपुस्तक के गद्य भाग में संकलित है।
(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।


उत्तर-(ख)जिस प्रकार विभिन्न नामों से पुकारी जानेवाली नदियाँ अपने पृथक्-पृथक् अस्तित्व को भूलकर एक विशाल सागर का रूप धारण कर लेती हैं, उसी प्रकार किसी राष्ट्र के नागरिकों के लिए भी यह आवश्यक है कि वे अपनी विभिन्न संस्कृतियों का अस्तित्व बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय संस्कृति को महत्त्व प्रदान करें। यदि राष्ट्रीय संस्कृति का अस्तित्व बना रहेगा तो राष्ट्र की विभिन्न संस्कृतियों का अस्तित्व भी सुरक्षित रह सकेगा; अतः राष्ट्रीय संस्कृति अथवा राष्ट्र के अस्तित्व के लिए भाषा, धर्म, जाति, सम्प्रदाय आदि पर आधारित भेदभावों को विस्मृत कर देना चाहिए और पारस्परिक सौहार्द एवं विविधता में एकता की भावना का परिचय देना चाहिए। इस प्रकार की समन्वयात्मक भावना के परिणामस्वरूप ही किसी राष्ट्र के नागरिक सुखद जीवन व्यतीत करने में सफल हो सकते हैं।
(ग) जंगल में लता, वृक्ष और वनस्पति किस अदम्य भाव के कारण अविरोधी स्थिति प्राप्त करते हैं?


उत्तर-(ग)जंगल में लता, वृक्ष और वनस्पति अपने अदम्य भाव से उठते हुए पारस्परिक सम्मिलन; अर्थात् पारस्परिक मेल-जोल एवं एकता की भावना से अविरोधी स्थिति प्राप्त करते हैं; जैसे-लताएँ वृक्षों से लिपटी रहती हैं और वृक्ष उन्हें सहारा प्रदान करते हैं।
(घ) राष्ट्र के जन किसके द्वारा एक-दूसरे के साथ मिलकर राष्ट्र में रहते हैं ?


उत्तर-(घ) राष्ट्र के जन अपनी संस्कृतियों के द्वारा एक-दूसरे के साथ मिलकर राष्ट्र में रहते हैं?
(ङ) जल के अनेक प्रवाह किसके रूप में मिलकर कहाँ एकरूपता प्राप्त करते हैं?


उत्तर-(ङ) जल के अनेक प्रवाह नदियों के रूप में मिलकर समुद्र में एकरूपता प्राप्त करते हैं?
(च) किस प्रकार के जीवन को राष्ट्र का सुखदायी रूप कहा गया है?


उत्तर-(च) समन्वययुक्त जीवन ही राष्ट्र का सुखदायी रूप कहा गया है। अर्थात् विभिन्न संस्कृतियाँ अपने अस्तित्व को बनाए रखने के साथ ही राष्ट्रीय संस्कृति को भी महत्त्व प्रदान करें, तभी उनका अस्तित्व भी बना सकता है और देश के सभी निवासियों का जीवन सुखदायी हो सकता है |
(7)साहित्य, कला, नृत्य, गीत, आमोद-प्रमोद अनेक रूपों में राष्ट्रीय जन अपने-अपने मानसिक भावों को प्रकट करते हैं। आत्मा का जो विश्वव्यापी आनन्द-भाव है वह इन विविध रूपों में साकार होता है। यद्यपि बाह्य रूप की दृष्टि से संस्कृति के ये बाहरी लक्षण अनेक दिखाई पड़ते हैं, किन्तु आन्तरिक आनन्द की दृष्टि से उनमें एकसूत्रता है। जो व्यक्ति सहृदय है, वह प्रत्येक संस्कृति के आनन्द-पक्ष को स्वीकार करता है और उससे आनन्दित होता है। इस प्रकार की उदार भावना ही विविध जनों से बने हुए राष्ट्र के लिए स्वास्थ्यकर है।


(क) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर-(क) प्रस्तुत गद्यांश सुविदित साहित्यकार डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा लिखित ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक निबन्ध से उद्धृत है। यह निबन्ध हमारी हिन्दी की पाठ्यपुस्तक के गद्य भाग में संकलित है।


(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-(ख)सहृदयता से प्रत्येक संस्कृति के आनन्द देनेवाले पक्ष को स्वीकार करना ही राष्ट्रीयता की की भावना का परिचायक है। इस प्रकार वे सभी संस्कृतियाँ एकसूत्र में बँधती हैं और वे ही सम्पूर्ण राष्ट्र सम्मिलित संस्कृति को मुखरित करती हैं। किसी राष्ट्र के सबल अस्तित्व के लिए इस प्रकार की एकसूत्रता आवश्यक है।


(ग) राष्ट्रीय जन किन रूपों में अपने मानसिक भावों को प्रकट करते हैं?
उत्तर-(ग) राष्ट्रीय जन साहित्य, कला, नृत्य, गीत, आमोद-प्रमोद आदि के माध्यम से अपने मानसिक भावों को प्रकट करते हैं।


(घ) आत्मा का विश्वव्यापी आनन्द-भाव किन रूपों में साकार होता है?
उत्तर-(घ) आत्मा का विश्वव्यापी आनन्द-भाव संस्कृति के विभिन्न माध्यमों, जैसे-साहित्य, कला, आमोद-प्रमोद आदि रूपों में ही साकार होता है


(ङ) संस्कृति के आनन्द पक्ष को स्वीकारते हुए कौन आनन्दित होता है?
उत्तर-(ङ) प्रत्येक संस्कृति के आनन्ददायी पक्ष को स्वीकारते हुए वही व्यक्ति आनन्दित होता है, जो सहृदय है; अर्थात् जो अच्छे, उदार और व्यापक हृदयवाले हैं, वे किसी भी संस्कृति के उपयोगी, महत्त्वपूर्ण अथवा आनन्ददायी पक्ष को सहजता से स्वीकार कर लेते हैं और ऐसा करने से उन्हें आनन्द की प्राप्ति होती है |


(8) पूर्वजों ने चरित्र और धर्म-विज्ञान, साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में जो भी कुछ पराक्रम किया है, उस सारे विस्तार को हम गौरव के साथ धारण करते हैं और उसके तेज को अपने भावी जीवन में साक्षात् देखना चाहते हैं। यही राष्ट्र-संवर्धन का स्वाभाविक प्रकार है। जहाँ अतीत वर्तमान के लिए भार रूप नहीं है, जहाँ भूत वर्तमान को जकड़ नहीं रखना चाहता, वरन् अपने वरदान से पुष्ट करके उसे आगे बढ़ाना चाहता है, उस राष्ट्र का हम स्वागत करते हैं।
(क) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।


उत्तर-(क) प्रस्तुत गद्यांश सुविदित साहित्यकार डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा लिखित ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक निबन्ध से उद्धृत है। यह निबन्ध हमारी हिन्दी की पाठ्यपुस्तक के गद्य भाग में संकलित है।
(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।


उत्तर-(ख)सांस्कृतिक परिवेश विकास की एक पद्धति है। हमारे पूर्वजों ने चरित्र, धर्म, विज्ञान, साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में जो उन्नति की है, उस पर गर्व करते हुए हम उसे राष्ट्र की विभूति के रूप में स्वीकार करते हैं। प्राचीनता के प्रति गौरव की भावना से हमारे मन में भावी प्रगति हेतु प्रबल आकांक्षा का उदय होता है। इस आकांक्षा को हम अपने भावी जीवन में साकार होता हुआ देखना चाहते हैं। हमारी कामना होती है कि इस गौरव को हम अपने जीवन में उतारें और अपने भविष्य को पुष्ट बनाएँ। यही राष्ट्र के विकास का स्वाभाविक ढंग है।
(ग)हम गौरव के साथ किसे धारण करते हैं?


उत्तर-(ग) हमारे पूर्वजों ने अपने महान् चरित्र का उदाहरण प्रस्तुत करके धर्म, विज्ञान साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में जो भी उल्लेखनीय कार्य किए हैं, उन्हें हम समग्र रूप में गौरव के साथ धारण करते हैं।
(घ) हमारे पूर्वजों ने संस्कृति के किन क्षेत्रों में अपना पराक्रम दिखाया है?


उत्तर-(घ) हमारे पूर्वजों ने संस्कृति के धर्म, कला, साहित्य, विज्ञान आदि क्षेत्रों में तथा अपने चरित्र को महान् बनाने की दृष्टि से अपना पराक्रम दिखाया है।
(ङ) हम अपने भावी जीवन में किसे साकार होता हुआ देखना चाहते हैं?


उत्तर-(ङ) प्राचीनता के प्रति गौरव की भावना से हमारे मन में भावी प्रगति हेतु प्रबल आकांक्षा का उदय होता है। इस आकांक्षा को ही हम अपने भावी जीवन में साकार होता हुआ देखना चाहते हैं।
(च)राष्ट्र के विकास का स्वाभाविक ढंग किसे बताया गया है?


उत्तर-(च) हमारे पूर्वजों द्वारा दर्शाए गए महान् चरित्र और संस्कृति के विभिन्न क्षेत्रों में उनके द्वारा किए गए महान् कार्यों के परिणामस्वरूप हमारे मन में उनके प्रति गौरव का भाव उत्पन्न होता है। साथ ही हमारे मन में यह कामना भी उत्पन्न होती है कि हम गौरव को अपने जीवन में उतारें और अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाएँ। यही राष्ट्र के विकास का स्वाभाविक ढंग है |

إرسال تعليق

Please dont share any sensitive or personal details here.

Cookie Consent
We serve cookies on this site to analyze traffic, remember your preferences, and optimize your experience.
Oops!
It seems there is something wrong with your internet connection. Please connect to the internet and start browsing again.
AdBlock Detected!
We have detected that you are using adblocking plugin in your browser.
The revenue we earn by the advertisements is used to manage this website, we request you to whitelist our website in your adblocking plugin.
Site is Blocked
Sorry! This site is not available in your country.