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पाठ 6 : नृपति दिलीप:

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गद्यांशों एवं श्लोकों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद:


प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य दोनों) से एक-एक गद्यांश व श्लोक दिए जाएँगे, जिनका सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


वैवस्वतो मनु म माननीयो मनीषिणाम्।
आसीन्महीक्षितामाद्यः प्रणवश्छन्दसामिव।।

शब्दार्थ:माननीयो-पूज्य; मनीषिणाम् विद्वानों में; आसीत-था, थे; महीक्षिताम-राजाओं में आद्य:-प्रथम; प्रणवश्छन्दसामिव-वेदों में ओऽम (ऊ) की तरह।

सन्दर्भ: प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘नृपतिर्दिलीपः’ नामक पाठ से उद्धृत है।

अनुवाद: पवैवस्वत नाम के राजा, विद्वानों में पूज्य, वेदों में ओऽम (ॐ) की तरह राजाओं में प्रथम हुए।



तदन्वये शुद्धिमति: प्रसूत: शुद्धिमत्तरः।
दिलीप इति राजेन्दुरिन्दुः क्षीरनिधाविव।।

शब्दार्थ: तदन्वये उनके वंश में शुद्धिमति-शुद्धि से युक्त, प्रसूत:-उत्पन्न हुए; राजेन्दुरिन्दुः-राजाओं में श्रेष्ठ; क्षीरनिधाविय- जैसे क्षीर सागर में।

सन्दर्भ: पूर्ववत्।

अनुवाद: उनके (मनु के) पवित्र वंश में बहुत अधिक शुद्ध बुद्धियुक्त, राजाओं में श्रेष्ठ दिलीप, क्षीरसागर में शशि के समान उत्पन्न हुए (पैदा हुए)।



भीमकान्तैर्नृपगुणैः स बभूवोपजीविनाम्।
अधृष्यश्चाभिगम्यश्च यादोरलैरिवार्णवः।।

शब्दार्थ: भीमकान्तै:-भयंकर तथा मनोहर, उपजीविनाम-आश्रित जनों को; अधष्यश्चाभिगम्यश्च-अनतिक्रमणीय और आश्रय योग्य: यादोरलैः-भयंकर जल जन्तु तथा रत्नों से; अर्णवः-समुद्र

सन्दर्भ: पूर्ववत्।

अनुवाद: जल जन्तुओं के कारण उल्लंघन न करने योग्य तथा रत्नों के कारण अवगाहन करने योग्य समद्र की तरह वे राजा दिलीप भी। भयानक तथा उदारता आदि गुणों के कारण मनुष्यों के लिए अनतिक्रमणीय और आश्रय के योग्य थे।



रेखामात्रमपि क्षुण्णादामनोर्वर्त्मन: परम्।
न व्यतीयुः प्रजास्तस्य नियन्तुर्नेमिवृत्तयः।।

शब्दार्थ: रेखामात्रमपि-जरा भी (किञ्चिद मात्र भी) क्षुण्णाद- प्रचलित; आमनोर्वमनः-मनु के समय से चले आए मार्ग से; नेमिवृत्तयः -परम्परा एवं लीक पर चलने वाला।

सन्दर्भ: पूर्ववत्।

अनुवाद: उनकी (राजा दिलीप की) प्रजा ने मनु द्वारा निर्दिष्ट (प्रचलित उत्तम) मार्ग का (उसी प्रकार) रेखामात्र भी उल्लंघन नहीं किया, जैसे कुशल (रथ) सारथी पहिये को मार्ग से रेखामात्र भी विचलित नहीं करते। यहाँ कहने का आशय यह है कि राजा दिलीप के शासनकाल में प्रजा परम्परा का पालन करने वाली, अनुशासित एवं मनु के बताए मार्ग अर्थात् सुमार्ग का अनुकरण करने वाली थी।



आकारसदृशप्रज्ञः प्रज्ञया सदृशागमः।
आगमैः सदृशारम्भ आरम्भसदृशोदयः।।

शब्दार्थ: आकारसदश-आकृति के अनुरूप; प्रज्ञः -बुद्धि वाले; प्रज्ञया- बुद्धि से; सदृशागमः-शास्त्रों में परिश्रम करने वाले; आगमैः-वेद-शास्त्रों के अनुकूल कार्य को शुरू करने वाले; आरम्भसदृशोदय:-शुरू किए गए कार्यों के अनुसार फल वाले।

सन्दर्भ: पूर्ववत्।

अनुवाद: (सुन्दर दिखने वाले राजा दिलीप अपनी) आकृति के अनुरूप बुद्धिमान, बुद्धि के अनुरूप शास्त्रों के ज्ञाता, शास्त्रानुकूल (शुभ कार्य) प्रारम्भ । करने वाले और उसका उचित परिणाम पाने वाले थे।


प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमगृहीत्।
सहष्टुगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रविः।।

शब्दार्थ: प्रजानामेव-प्रजा की ही; भूत्यर्थ-भलाई के लिए; स-वह (दिलीप); ताभ्यो-उनसे; बलिमगृहीत्-कर लेता था।

सन्दर्भ: पूर्ववत्।

अनुवाद: (वे (राजा दिलीप) प्रजा के कल्याणार्थ ही उनसे कर ग्रहण करते थे। जैसे-सूर्य सहस्रगुणा (जल) प्रदान करने के लिए (पृथ्वी से) जल ग्रहण करता है।



सेनापरिच्छदस्तस्य द्वयमेवार्थसाधनम्।
शास्त्रेष्वकुण्ठिता बुद्धिमौर्वी धनुषि चातता।।

शब्दार्थ: सेना-सेना; परिच्छदस्तस्य-उसका साधन; द्वयमेव-दो ही; अर्थसाधनम-अर्थ का साधन; शास्त्रेष-शास्त्रों में अकण्ठिता- पैनी; मौर्वी- प्रत्यंचा (डोरी); धनुषि-धनुष पर; च-और; आतता-चढ़ी हुई।

सन्दर्भ: पूर्ववत्।

अनुवाद:उस नृप दिलीप की सेना तो उसका साधन मात्र थी। उसके अर्थ के साधन दो ही थे, शास्त्रों में प्रखर बुद्धि और धनुष पर चढ़ी डोरी प्रत्यंचा।


तस्य संवृतमन्त्रस्य गुढाकारेङ्गितस्य च।
फलानुमेया प्रारम्भा: संस्कारा: प्राक्तना इव।।

शब्दार्थ: तस्य-उसके, उसका; संवत-गुप्त; मन्त्रस्य-मन्त्रणा वाले की, गुढाकार-गुप्त आकार; इंगितस्य-संकेतवाले की; अनुमेय- जानने योग्य; संस्कारा:-संस्कारों के प्राक्तना-पूर्व जन्म के।

सन्दर्भ: पूर्ववत्।

अनुवाद:गुप्त मन्त्रणा (विचार) करने वाले, गुप्ताकृति और इशारे वाले उस नृप दिलीप के कार्यों की शुरुआत पूर्व जन्म के संस्कारों सदृश फल से ही जानने योग्य था।


जुगोपात्मानमत्रस्तो भेजे धर्ममनातुरः।
अगृध्नुराददे सोऽर्थमसक्तः सुखमन्वभूत्।।

शब्दार्थ: जगोप-रक्षा करते थे: आत्मानम-स्वयं को (शरीर की); अत्रस्त:-निर्भय होकर; भेजे-सेवा करते थे धर्मम्-धर्म का; अनातुर:-बिना घबराए हुए: अध्न-लालच के बिना, असक्त:-आसक्ति राहत, सुखमन्वभूत्-सुख का अनुभव करते थे।

सन्दर्भ: पूर्ववत्।

अनुवाद: नृप दिलीप, निर्भय होकर अपने तन की रक्षा करते थे बिना घबराए हुए धर्म का अर्जन करते थे, लालच बिना धन एकत्रित करते थे और विषयों में अनासक्त होकर सुखों का भोग करते थे।


ज्ञाने मौनं क्षमा शक्तौ त्यागे श्लाघाविपर्ययः।
गुणा गुणानुबन्धित्वात् तस्य सप्रसवा इव॥

शब्दार्थ: ज्ञाने-ज्ञान रहने पर; मौनं-चुप (शान्त); शक्ती-शक्ति रहने पर;क्षमा-क्षमा करना; श्लाघाविपर्ययः-प्रशंसा रहित (बिना प्रशंसा के); गुणानुबन्धित्वात-गुणों से अनुबन्ध के कारण; तस्य-उसके; सप्रसवा- सहोदर; इव-तरह (जैसे)।

सन्दर्भ: पूर्ववत्।

अनुवाद: (उनमें) ज्ञान रहने पर मौन रहना, शक्ति रहने पर क्षमा करना तथा बिना प्रशंसा के त्याग (दान) करना-जैसे विरोधी गुणों के साथ-साथ रहने के कारण उनके ये गुण एक साथ जन्मे प्रतीत होते थे।



अनाकृष्टस्य विषयैर्विद्यानां पारदृश्वनः।।
तस्य धर्मरतेरासीद् वृद्धत्वं जरसा विना।।

शब्दार्थ: अनाकृष्ट-भौतिक जगत् की वस्तुओं के प्रति आकृष्ट न होने वाले की विषयैर्विद्यानां-विषयविद्याओं में पारदश्वन:-पारगामी; तस्य-उसका, उसके धर्मरते-धर्म में प्रेम; आसीत्-था, वृद्धत्वं-बुढ़ापा; जरसा-वृद्धावस्था के बिना ही।

सन्दर्भ: पूर्ववत्।

अनुवाद: भौतिक जगत की वस्तुओं के प्रति अनासक्त रहने वाले सभी विद्याओं में दक्ष तथा धर्म-प्रेमी उस नृप दिलीप का वृद्ध अवस्था न होने पर भी बुढ़ापा ही था।



प्रजानां विनयाधानाद् रक्षणाद् भरणादपि।।
स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः।।

शब्दार्थ: प्रजानां-प्रजा में विनय:-नम्रता; रक्षणाद-रक्षा करने के कारण; भरणादपि-पालन-पोषण करने के कारण भी: स-वह; पिता- दिलीप: पितरस्तासां-उनके (प्रजा के) पिता; केवल-केवल; जन्महेतयः-जन्म के कारण।

सन्दर्भ: पूर्ववत्।

अनुवाद: प्रजा में विनय को स्थापित करने के कारण, रक्षा करने के कारण और भरण-पोषण करने के कारण वह (नप दिलीप) उन प्रजा जनों का पिता था। उनके पिता तो केवल जन्म का कारण थे।




दुदोह गां स यज्ञाय शस्याय मघवा दिवम्।
सम्पद्विनिमयेनोभौ दधतुर्भुवनद्वयम्।।

शब्दार्थ: दुदोह- दोहन किया; गम्-पृथ्वी का; शस्याम् अन्न के लिए; मधा-इन्द्र; दिवम्-स्वर्ग; सम्पद-सम्पत्ति के; विनिमये आदान-प्रदान से; उभौ-दोनों; दधतु-धारण करते थे अथवा सँभालते थे।

सन्दर्भ: पूर्ववत्।

अनुवाद: वे (राजा दिलीप) यज्ञ करने के लिए पृथ्वी का दोहन करते थे और इन्द्र अन्न के लिए स्वर्ग का। वे दोनों सम्पत्तियों के आपसी लेन-देन से दोनों लोकों का भरण-पोषण करते थे।



उद्वेष्योऽपि सम्मत: शिष्टस्तस्यार्तस्य यथौषधम्।
त्याज्यो दुष्टः प्रियोंप्यासीदगुलीवोरगक्षता।।

शब्दार्थ: द्वेष्योऽपि-दुश्मन भी; शिष्ट- सज्जन, सभ्य; आर्तस्य-रोगी का; त्याज्य-त्यागने योग्य; दुष्ट-दुष्ट स्वभाव वालाः प्रिय-प्रिय व्यक्ति भी; इ-समान; उरगक्षता-साँप द्वारा डसी गई।

सन्दर्भ: पूर्ववत्।

अनुवाद: उन्हें सज्जन शत्रु भी उसी प्रकार स्वीकार्य था जैसे रोगी को औषधि तथा दुष्ट प्रियजन भी उसी प्रकार त्याज्य था जैसे सर्प से डसी हुई अँगुली।



स वेलावप्रवलयां परिखीकृत-सागराम्।
अनन्यशासनामुर्वी शशासैकपुरीमिव।।

शब्दार्थ: दस-वह (उस); वेला-समुद्रतट; वम दुर्ग का परकोटा; परिखा खाई; अन्य दूसरों का; उर्वीम्-पृथ्वी; शशास-शासन किया।

सन्दर्भ: पूर्ववत्।

अनुवाद: सम्पूर्ण पृथ्वी पर राजा दिलीप ने एक छत्र शासन किया। उनके द्वारा इस समुद्रतटरुपी पृथ्वी पर जिसके चारों ओर गहरी खाई हो, ऐसी सम्पूर्ण पृथ्वी पर एक नगर के समान शासन किया।


प्रश्न/उत्तर:


प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएँगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।

प्रश्न: मनीषिणां माननीयः कः आसीत्?
उत्तर: मनीषिणाम् माननीयः वैवस्वतः मनुः आसीत्।।

प्रश्न:केषां माननीयः राज्ञः दिलीप: आसीत?
उत्तर:मनीषिणां माननीयः राज्ञः दिलीपः आसीत्।

प्रश्न:महीक्षिताम् आद्यः कः आसीत्?
उत्तर: महीक्षिताम् आद्यः वैवस्वतः मनुः आसीत्।

प्रश्न: दिलीपः कस्य अन्वये प्रसूतः?
उत्तर: दिलीप: वैवस्वतमनोः अन्वये प्रसूतः।

प्रश्न: नृपः दिलीपः कस्मिन् शशीव पृथिव्यां जातः?
उत्तर: नृपः दिलीपः क्षीरसागरे शशीव पृथिव्यां जातः।।































































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