शब्दार्थ: कदाचिद् -कभी आगत्य-आकर भोज -भोज को कौपीनावशेषो -जिस पर लंगोटी मात्र शेष है अर्थात् दरिद्र; द्वारि-द्वार पर भोजमालोक्य – भोज को देखकर अद्य-आज; मत्वा -मानकर, तमालोक्य-उसको देखकर सादाव-रोते हो।
सन्दर्भ: प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के भोजस्यौदार्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है।
अनुवाद: तत्पश्चात् द्वारपाल ने आकर महाराज भोज से कहा, “देव! द्वार पर ऐसा विद्वान् खड़ा है, जिसके तन पर केवल लँगोटी ही शेष है।” राजा बोले, “प्रवेश कराओ।” तब उस कवि ने भोज को देखकर यह मानकर कि आज मेरी दरिद्रता दूर हो जाएगी, प्रसन्नता के आँसू बहाए। राजा ने उसे देखकर कहा, “कवि! रोते क्यों हो?” तब कवि ने कहा-राजन्! मेरे घर की स्थिति को सुनिए।